शनिवार, 26 दिसंबर 2009

6 दिसम्बर आज़ाद हिन्दुस्तान के इतिहास का एक ऐसा दिन, जिसे पूरी दुनिया कभी भूला न सकेगी। हिन्दुस्तान के धर्म-निरपेक्ष छवि पर एक ऐसा बदनुमा दाग, जिसे सदियों तक मिटाया न जा सकेगा। अनेकता में एकता और गर्व से कही जाने वाली गंगा-जमुनी संस्कृति के चार सौ वर्ष पुराने धरोहर को दिन-दहाड़े ढ़ा दिया गया। एक पवित्र इबादतगाह को शहीद कर दिया गया। एक पूरी क़ौम रोती रही, कराहती रही, और हृदय रखने वाली इंसानियत तड़पती रही।
बाबरी मस्जिद विध्वंस की घटना को 17 वर्ष बीत गए हैं, और यह दिन संगठनों व राजनेताओं के लिए विरोध-प्रदर्शन, धरना, जलसा-जुलूस का दिन बन कर रह गया। इस तरह इन्हें हर साल अपनी टोपी-शिरवानी की गर्द झाड़ने और अपनी भाषणबाज़ी का ज़ौहर दिखाने का मौका मिलने लगा।
आलम तो यह है कि लिब्राहन आयोग ने अपनी रिपोर्ट पेश कर दी है। इस रिपोर्ट को लाने में लिब्राहन साहब को 17 वर्ष लग गए। इसमें देश की जनता का अथाह धन बर्बाद हुआ। लोकसभा- राज्यसभा में बहस भी पूरी हो गई। दिल्ली विधानसभा में तो मार-पीट तक की नौबत आ गई। पर नतीजा हुआ ढ़ाक के तीन पात।
खैर मामला अभी अदालत में है। लेकिन अब आपको तय करना है कि इस पूरे विवाद का क्या हल है...? इसके वजहों से दो भाईयो, दो धर्मों के बीच जो दूरियां बढ़ी हैं, उसे कैसे पाटा जाए...? कैसे खत्म किया जाए...?
आपके विचारों का स्वागत है। इससे जुड़ी आपकी यादें भी हमारे लिए महत्वपूर्ण है। आपके इन विचारों व यादों को हम अपने ब्लॉग http://leaksehatkar.blogspot.com के माध्यम से और फिर इसे पुस्तक की शक़्ल दे कर देश के भावी नागरिकों तक पहुंचाएंगे। तो फिर देर किस बात की। हमें जल्द से जल्द ई-मेल करें---- leaksehatkar@gmail.com पर।

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मंगलवार, 8 दिसंबर 2009

‘हम जानेंगे, हम जिएंगे’ के जनक का चला जाना...


पत्रकारिता का छात्र होने के नाते प्रभाष जी से परिचित होना स्वभाविक है। लेकिन उन्हें करीब से जानने का अवसर तब प्राप्त हुआ, जब मैं सूचना के अधिकार अभियान से जुड़ा। इस दौरान उनसे कई बार मिलने और बातचीत करने का अवसर भी प्राप्त हुआ। जब मैंने अपने कॉलेज के प्रोजेक्ट के रूप में सूचना के अधिकार पर रिसर्च करने की बात कही थी तो वो काफी खुश हुए थे और मेरी काफी हौसला-अफजाई भी की। उन्होंने मुझे यह भी सलाह दी कि इस अधिकार का ज़्यादा से ज़्यादा इस्तेमाल पत्रकारिता के लिए करूं।

सच पूछे तो सूचना के इस अधिकार को देश में नाफिज़ कराने में सबसे अहम रोल प्रभाष जी का ही रहा है। वो आरंभ से ही इसके तमाम आंदोलनों से जुड़े रहे और लिखते रहे, और जितना उन्होंने इस अधिकार पर लिखा, शायद ही किसी ने इतना लिखा हो। ‘हम जानेंगे, हम जिएंगे’ नारा के जनक प्रभाष जी ही थे। उन्हीं की वजह से सूचना के अधिकार आंदोलनों को अखबारों में जगह भी मिल पाती थी।

6 अप्रैल 1996 को ब्यावर में शुरू हुए 40 दिन के ऐतिहासिक धरने में उन्होंने कहा कि ‘सेठ मकान बनवाता है तो शाम को मुनीम से हिसाब मांगता है। लोकतंत्र में जनता राजा है। यह सरकार से हिसाब मांगती है तो उसे मना नहीं किया जा सकता है।’

इस धरने में प्रभाष जी न सिर्फ शामिल हुए बल्कि कुलदीप नैय्यर और देश के कई पत्रकारों में शामिल करवाया था। एक जगह खुद प्रभाष जी लिखते हैं- ‘हम इकट्ठे तब राज्यसभा के बिल पर विचार शुरू ही हुआ था। हम यानी सूचना के जन अधिकार पर राष्ट्रीय अभियान के लोग। हमारे बीच अरूणा राय नहीं थी, क्योंकि वे अपनी बीमार मां के साथ तिलोनिया थीं। प्रशांत भूषण भी नहीं थे, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट में उनका कोई केस चल रहा था। बाकी हम सब थे और एक तरह की धन्यता के भाव में थे।’

एक जगह और लिखते हैं- ‘जब हमने न्यायमूर्ति सावंत की अध्यक्षता वाली प्रेस परिषद के जरिए सूचना के अधिकार पर राष्ट्रीय सम्मेलन करवाया था तो उसमें भूतपूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने आंख खोल देने वाला भाषण दिया था। उनने कहा कि प्रधानमंत्री बनने के बाद सन् 90 में उनने अपने अधिकारियों को बुलाकर कहा कि सूचना के अधिकार पर अपनी पहल से एक नोट बनाया जाना चाहिए ताकि बात चलाई जा सके। काफी याद दिलाने के बाद उनके पास जो मसविदा आया उसे पढ़ने के बाद उन्हें लगा कि यह तो फालतू की कवायद होगी। मसविदा इतना पनीला था कि उसमें कितना ही दूध जाता वह दूधिया तक नहीं होता।’

8-10 अक्टूबर 2004 को सूचना के अधिकार पर दिल्ली में हुए राष्ट्रीय अधिवेशन में भी वो शामिल रहे और उन्होंने अपने भाषण में कहा- ‘..... लेकिन एक बात हमें साफ तौर पर याद रखनी होगी कि कितना ही कानून बन जाए या सरकार इसके लिए तैयार हो जाए लेकिन यह तब तक सफल नहीं होगा जब तक कि लोग इसके लिए संघर्ष नहीं करेंगे, क्योंकि जानकारी ही सचमुच की सत्ता है। जब भी कोई किसी से जानकारी लेता है तो सत्ता छीनता है। जिस तरह अंग्रेज़ लोग भारतीयों को सत्ता नहीं सौंपना चाहते थे, वैसे ही भारतीय सत्ताधीश भी आम लोगों को सत्ता से दूर रखना चाहते हैं। अब मौका आ गया है जब हम अपने गांव, कस्बे या शहर में ‘सूचना की सत्ता’ की प्राप्ति के लिए संघर्ष छेड़ दें।’

एक जगह और वो लिखते हैं- ‘सूचना सत्ता है’ इस आधुनिक मुहावरे की जितनी अच्छी और पक्की समझ भारत की नौकरशाही को है, उतनी उन राजनेताओं को भी नहीं जो दिन-रात सत्ता के पीछे पड़े रहते हैं और उसे पाने के लिए कुछ भी कर सकते हैं। अपने देश की नौकरशाही जानती है कि स्थायी वही है। राजनेता और सरकारें तो आती-जाती रहती हैं। वह यह भी जानती है कि राज चलाने के लिए ही नहीं, धन बनाने के लिए भी राजनेताओं को उन पर निर्भर रहना पड़ता है। राजनेता सार्वजनिक संसाधनों की जैसी और जितनी लूट मचाते हैं, उससे ज़्यादा नौकरशाही करती है। वह भ्रष्ट राजनेताओं के प्रति कितनी उत्तरदायी होती होगी इसका अंदाज़ ही लगाया जा सकता है। सूचना और जानकारी पर असली कब्ज़ा नौकरशाही का होता है।

‘भारत में मीडिया, विधायिका और न्यायपालिका से कहीं ज़्यादा सूचना का अधिकार लोगों को चाहिए क्योंकि मीडिया, विधायिका और न्यायपालिका तो किसी तरह सूचनाएं फिर भी पा लेती हैं, लेकिन एक खेतिहर मजदूर जान नहीं पाता कि क्यों उसे रोज़गार नहीं मिला और कैसे उसके नाम पर उसकी मजदूरी दूसरा कोई खा गया जो मजदूरी नहीं करता।’

आम आदमी और खेतिहर मजदूरों का जितना दुख-दर्द प्रभाष जी ने महसूस किया। काश उसका कुछ प्रतिशत भी आज की मीडिया समझ पाती। आज आलम तो यह है कि इन गरीबों की खबरें भी पैसे लेकर छापी जाती हैं। पर प्रभाष जी खबरों के प्रकाशन में धन लेने की नई प्रवृति के विरोधी थे, बल्कि इन दिनों वो सूचना के अधिकार पर काम करने वालों को लेकर भी चिंचित थे, क्योंकि उनका मानना था कि इन लोगों ने सूचना का कारोबार चलाना शुरू कर दिया है। आम लोगों से अवार्ड के नाम पर खबरें लेकर मीडिया को बेची जा रही हैं। वो सूचना के अधिकार पर लोगों व सरकारी अधिकारियों यानी नौकरशाहों को अवार्ड दिए जाने के भी पक्षधर नहीं थे, जिस अवार्ड के लिए पूंजीपतियों का पैसा लगाया जा रहा है। खैर, प्रभाष जी से डेढ़-दो महीने पहले मैंने फोन पर बात की थी। दरअसल, मैं सूचना के अधिकार पर लिखी अपनी पुस्तक के लिए उनका इंटरव्यू करना चाह रहा था। प्रभाष जी इसके लिए तैयार भी थे, लेकिन उन्होंने मुझे कुछ दिन इंतज़ार करने को कहा। उन्होंने बताया कि ‘मेरी तबीयत आज कल ठीक नहीं चल रही है, जैसे ही मैं ठीक होता हूं, आपको बुला लूंगा।’ बात-बात में मैंने आर.टी.आई. अवार्ड पर उनकी राय जानने की कोशिश की। इस मामले में वो अरविंद केजरीवाल से काफी नाराज़ दिखे। उन्होंने मुझसे कहा कि आपने तो आर.टी.आई. खूब डाली हैं, क्या आपने भी इस अवार्ड के लिए अपना नॉमिनेशन किया है? जब मैंने उन्हें बताया कि मैं भी अवार्ड के पक्ष में नहीं हूं, बल्कि उसका विरोध कर रहा हूं। मैंने खुद तो अपना नॉमिनेशन नहीं किया लेकिन मेरे कई दोस्तों ने मेरा नॉमिनेशन किया था। वहां से कई सारे पत्र व फॉर्म भी आए, लेकिन मैंने उसे भरकर नहीं भेजा। मेरी इन बातों को सुनकर पूछा कि विरोध करने का क्या फायदा। फॉर्म भरकर भेज देते तो शायद कुछ पैसे-वैसे मिल ही जाते, क्योंकि आपने तो राजनीतिक दलों और बटला हाउस एनकाउंटर पर काफी अच्छा काम किया है। जब मैंने विरोध के पक्ष में अपने तर्क दिए तो वो काफी खुश हुए। मुझे सलाह दी कि इन बातों को लोगों के बीच लाना चाहिए, अन्यथा विरोध का कोई मतलब नहीं रह जाता है। यह हमारी आखिरी बातचीत थी, जिसे मैं पूरी जिंदगी भूल नहीं पाउंगा। मुझे अब भी यक़ीन नहीं होता कि वो मुझे छोड़कर सदा के लिए जा चुके हैं। मैं बार-बार यही सोचता हूं कि आज फोन करके उनसे मिलने चला जाउं। काश ये मुमकिन हो पाता......
अफ़रोज़ आलम साहिल